सदियों से भारत सूती वस्त्र के निर्माण हेतु पहचाना जाता है। तथापि भारत की पहली कपड़ा मिल उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में स्थापित की गई थी। कपास खेती का क्षेत्र बढ़ाने तथा भारतीय कपास गुणवत्ता में सुधार लाने के ठोस प्रयासों को उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक के दौरान तब शुरुआत हुई जब संयुक्त राज्य अमेरिका में कपास उपज में भारी गिरावट आ गई। भले ही भारत उस समय दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश था, लेकिन विभिन्न स्टेपल लंबाई की रेशायुक्त प्रजातियों की वजह से भारतीय कपास का उत्पादन बहुत बुरी तरह से असंतुलित था। भारत में लगभग तीन चौथाई कपास का उत्पादन 17 मिमी स्टेपल लंबाई से कम था। इस स्थिति का अध्ययन करने के लिए 1919 में भारत सरकार ने भारतीय कपास समिति (आइ.सी.सी.) गठीत की। भारतीय केंद्रीय कपास समिति (आइ.सी.सी.सी.) का गठन करना समिति की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक थी। तदनुसार, मार्च 1921 में आइ.सी.सी.सी. का गठन किया गया। भारतीय कपास समिति ने आइ.सी.सी.सी. को भारतीय कपास का परीक्षण करने हेतु एक कपास प्रौद्योगिकीविद् की नियुक्ति करने के लिये सुझाव दिया ताकि “आधिकारिक मूल्यांकन, कताई परीक्षणों की व्यवस्था और निरूपण तथा कपास रेशा गुणवत्ता पर बुनियादी अनुसंधान कार्य” किया जा सके। इस सिफारिश के परिणामस्वरूप, आइ.सी.सी.सी. ने मुंबई में एक तकनीकी प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए कार्रवाई की। कपड़ा प्रौद्योगिकी में कार्यरत तत्कालीन ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉ. ए. जे. टर्नर ने जनवरी, 1924 में प्रथम निदेशक के रूप में पदभार संभाला।
प्रारंभिक चरणों में तकनीकी प्रयोगशाला का कार्य निम्न रूप से निष्पादित किया जाता था;
पूर्व में अपनी तरह की पहली प्रयोगशाला के रुप में यह टेक्नोलॉजिकल लेबोरेटरी स्थापित हुई जब कपास प्रौद्योगिकी का विज्ञान अपनी प्रारंभिक अवस्था में था। इसीलिए रेशा गुणवत्ता का मूल्यांकन और संबंधित कताई प्रदर्शन के प्राथमिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विविध परीक्षण प्रक्रियाओं और उपकरणों के मानकीकरण पर तब काफी ध्यान दिया गया।